Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


प्रेमाश्रम मुंशी प्रेम चंद (भाग-4)

26.

प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घिर आते थे। मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की छाल और गिलोय की बाहर थी। चरावर में दूर तक हरी-हरी घास लहरा रही थी। अभी किसी को उसे काटने का अवकाश न मिलता था। इसी समय बिन्दा महाराज और कर्तारसिंह लाठी कंधे पर रखे एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। कर्तार ने कहा, इस बुड्ढे को खुचड़ सूझती रहती है। भला बताओ, जो यहाँ मवेसी न चरने पायेंगे तो कहाँ जायेंगे और जो लोग सदा से चराते आये हैं, वे मानेंगे कैसे? एक बेर कोई इसकी मरम्मत कर देता तो यह आदत छूट जाती।

बिन्दा– हमका तो ई मौजा मा तीस बरसें होय गईं। तब से कारिन्दे पर चरावर कोऊँ न रोका। गाँव-भर के मवेशी मजे से चरत रहे।

कर्तार– उन्हें हुक्म देते क्या लगता है! जायगी तो हमारे माथे।

बिन्दा– हमार जी तो अस ऊब गया कि मन करत है छोड़-छाड़ के घर चला जाई। सुनित है मलिक अवैया हैं। बस, एक बेर उनसे भेंट होय जाय और अपने घर के राह लेई।

कर्तार– फ़ैजू दिन भर खाट पर पड़ा रहता है, उससे कुछ नहीं कहते। जब देखो, कर्तार को ही दौड़ाते हैं, मानो कर्तार उनके बाप का गुलाम है। और देखो, पीपल के नीचे जहाँ हम-तुम जल चढ़ाते हैं। वहाँ नमाज पढ़ते हैं; वहीं दतुअन-कुल्ली करते हैं, वहीं नहाते हैं। बताओं, धरम नष्ट भया की रहा? आप तो रोज कुरान पढ़ते हैं और मैं रामायण पढ़ने लगता हूँ तो कैसे डाँट के कहते हैं, क्या शोर मचा रखा है। अबकी असाढ़ में ३०० रु. नजराना मिला; मुझे एक पाई भेंट न हुई।

बिन्दा– हमका तो एक रुपया मिला रहै।

कर्तार– यह भी कोई मिलने में मिलना है! और सब कहीं चपरासियों को रुपये में आठ आने मिलते हैं। यह कुछ न दें तो चार आने तो दें, । लेना-देना दूर रहा उस पर आठों पहर सिर पर सवार। कल तुम कहीं गये थे। मुझसे बोले, कर्तार एक घड़ा पानी तो खींच लो। मैंने तुरन्त जवाब दिया, इसके नौकर नहीं है, फौजदारी करा लो, लाठी चलवा लो, अगर कदम पीछे हटायें तो कहो, लेकिन चिलम भरना, पानी खींचना हमारा काम नहीं है। इस पर आँखें बहुत लाल पीली की। एक दिन पीपल के नीचे दाली मूरतों को देखकर बोले, यह क्या ईंट-पत्थर जमा कर रखे हैं। मैंने तो ठान लिया है कि जहाँ अबकी कोई नजराना लेकर आया और मैंने हाथ पकड़ा कि चार आने इधर रखिए। जरा भी नरम-गरम हुए, मुँह से लाम-काफ निकाली और मैंने गरदन दबायी। फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा। फैजू बोले, तो उनसे भी मैं समझूँगा। खूब- पड़े-पड़े रोटी-गोस उड़ा रहे हैं, सब निकाल दूँगा... वह देखो मवेशी इधर आ रहे हैं। बलराज तो नहीं है न?

बिन्दा– होबै करी तो कौनो डर हौ। अबकी अस जर आवा है कि ठठरी होय गवा है।

कर्तार– बड़े कस-बल का पट्ठा है। सुक्खू चौखरी का तालाब जहाँ बन रहा था वहीं एक दिन अखाड़े में उससे मेरी एक पकड़ हो गयी थी। मैं उसे पहले ही झपाटे में नीचे लाया; लेकिन ऐसा तड़प के नीचे से निकला कि झोकों में आ गया। सँभल ही न सका। बदन नहीं, लोहा है।

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